प्रस्तुति -प्रताप सिंह नेगी
अल्मोड़ा -ख़तरूआ/ खतड़वा त्यौहार उत्तराखंड के पशुचारक-कृषि कुमाऊँ समाज के लिए एक विशेष त्यौहार है। यह प्रतिवर्ष चंद्र-सौर हिंदू कैलेंडर के सातवें महीने अश्विन के पहले दिन मनाया जाता है।
खतडवा पर्व में शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक के रूप में मनाया जाता कुछ लोग कथाओं के अनुसार कुमाऊं के लोग अपने सेना पति के बिजय की खुशियों में डुबे हुए के प्रतीक हैं। दूसरी तरफ कहावत है प्राचीन काल में यातायात व दूरसंचार का अभाव था। आश्विन संक्रांति के दिन पहाड की चोटियों में लोग आग जलाकर हल्लाबोल करके एक दूसरे को शीत ऋतु के आगमन के लिए सूचनना देने के लिए खतडुवा से शुरुवात करते थे।
आज के दिन कुमाऊं के लोग अपने पशुओं को शीत ऋतु में सुरक्षा के लिए खतडुवा देव का मंदिर बनाकर मंदिर के सामने घास भूष व पिरुल की चोटी जैसी बनाते हैं।शाम के समय अपने अपने परिवार के बड़े बुजुर्गो के द्वारा खतडुवा मंदिर में पूजा अर्चना की जाती उतराखड के ककड़ी,व अमरुद व अन्य मौसमी फलों के द्वारा उसके बाद उन दोनों चोटियों की प्रकिम्रा करके आग जलाकर खतडुवा भाले भाले बोला जाता है ,खसेर मसेर वाल भथेर,पाल भथेर भियार जा। उसके बाद अपने गोठ के जानवरों को व आग दिखाई जा ती है तब बोला जाता है खतडुवा खसेर मसेर वाल गोठ पाल गोठ,पाल भिथेर वाल भिथेर भियार जा।शीत ऋतु में हमर जानवर की रक्षा करना। कुमाऊं में आश्विन संक्रांति के दिन खतडुवे को इसलिए मनाया जाता इस दिन से शीत ऋतु का आगमन होता है।
प्रताप सिंह नेगी समाजसेवी बताया आज से 40साल पहले कुमाऊं में खतडुवा त्यौहार बड़े हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता था। लेकिन अब धीरे-धीरे उत्तराखंड प्रथक बनने के बाद खतडुवा पारंपरिक लोकप्रिय त्यौहार में गिरावट आ रही है। फिर भी आज उत्तराखंड के कुमाऊं में खतडुवा त्यौहार मनाया जाता है।